समेटा रिश्तों को मुठ्ठी में जो,
फिसलते रेत सम बन धारा।
गिर कर उठना, उठ कर फिर…
क्यूँ गिरता, फिर हारा?
क्यूँ मैं हर बार हारा?
क्यूँ मैं बार बार हारा?
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बंधुवर, आप तो शब्दों के जादूगर हैं. क्या बात कह गए आप. वैसे हैं कहाँ आप आजकल. काफी दिनों से कोई ख़बर नहीं है आपकी.
very nice poetry