हमारे गाँव में (शायद पूरे ऊपरी शिमला में) रिवाज़ है कि जब किसी व्यक्ति की रिश्तेदारी में कोई मृत्यु होती है तो वह व्यक्ती अपने पूरे गाँव वालों को बोलता है कि उन्हें उस व्यक्ती के परिवार के साथ शोक व्यक्त करने उस गाँव चलना है जहां मृत्यु हुई है। इस रिवाज़ को पहाड़ी भाषा में मातम-पुर्शी कहा जाता है।
शायद लोगों ने मातम और महातम-पुरुष के मिश्रण से मातम-पुर्शी शब्द बना दिया है। यह रिवाज़ कोरोना के दौर में सोशल डिस्टेन्सिंग के नियमों के विरुद्ध जाता रहा। लोग धर्म संकट में रहे। अब अगर साथ चलने के लिए बोल दिया है तो जाना तो पड़ेगा। दूसरी तरफ़, बोलने वाला भी धर्म संकट में — बोलूँ की नहीं। अगर गाँव वालों को नहीं बोला तो कहीं कोई बुरा न मान जाए। कल को ये न बोल दे कि तू तो अकेले भी जी लेगा, तुझे हमारी क्या ज़रुरत? आज भी अकेले काम कर ले। इस धर्म संकट में लोग भर भर के मातम-पुर्शी में जाते रहे।
जो लोग साथ में हैं उन्हें मरने वाले का कोई दुःख नहीं है। वे तो हँसी मज़ाक करते हुए एक तरह से पिकनिक पर जाते हैं। मय्यत के सामने, 2 सेकंड सिर झुका के झूठ का दुःख दिखाते हैं और फ़िर उसी हँसी मज़ाक़ से आगे बढ़ते हैं। कुछ तो वापसी में अपनी दारु के इन्तेजाम की भी प्लानिंग कर डालते हैं। नौजवान तो नौजवान, इस मातम-पुर्शी में — आपको जहाँ बुजुर्गों के बाहर निकलने पर मनाही थी, वे भी खूब नाच नाच कर गए। आखिर वे भी लौकडाउन में अन्दर ही अन्दर ऊब गए थे। मातम-पुर्शी, बाहर निकलने का बहाना मिल गया। बूढ़ी से बूढ़ी औरतें सज धज कर मातम-पुर्शी में आई। आख़िर सोना, चांदी व अच्छे कपड़े शादियों में निकालने के इलावा यहां पर दिखाने का मौका मिलता है। जहां फिजिकल डिस्टेन्सिंग की माँग थी, वहां ये औरतें खूब गले लग लग कर, एक दूसरे से मिलीं।
याद रहे कि इस मातम-पुर्शी में अलग अलग जगह से लोग आते हैं और उन सब को कोई दर्द नहीं है। जब इन्हें ये याद दिलाया जाता था कि इस तरह कोरोना फैल सकता है, तो उनका जवाब या तो हँसी में टालना होता था या गुस्से वाला: “कोरोना होगा तुझे।” मास्क तो शायद मुझ जैसे मूर्ख लोग ही ठीक से पहनते थे। सरकार जब तक Anthropology के मायने से लोगों के रिवाजों को नहीं समझेगी, तब तक कानून व नियम कागज़ों में धरे रह जाएंगे। और हाँ, चाहे शादी हो या मय्यत, पहाडिय़ों में हर कहीं थूकने का भी रिवाज़ है।
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