तो आते हैं मेरी परसों वाली मातम-पुर्शी की कहानी पर। एक दिन कहीं मातम में जाने का बुलावा आ गया। गाँव वालों ने मिलकर एक Trax बुक कर ली। जब मैं गाड़ी के पास पहुँचा तो देखा गाँव के काफी बुज़ुर्ग भी मातम में जाने को तैयार हैं। कोरोना भी गाँव की तरफ पैर बढ़ा चुका था। मेरे एक चाचा ने जो मेरे हम उम्र हैं, उन्होंने एक बुज़ुर्ग से कहा, “आप कहाँ चले? बुज़ुर्गों को बहुत खतरा है बाहर। अपने किसी बेटे को भेज देते।”
बुज़ुर्ग ने साँस न ली। और तपाक से रोष में आ गए और भनभनाते हुए बोले, “कौन रोकेगा हमें?”
खैर चाचा तो कुछ न बोले, परन्तु मुझसे रहा न गया। और मैं साँस ले कर बोला, “आपको कौन रोक सकता है भला? आपको तो यमराज भी नहीं रोक सकता। उनके द्वार भी आपके लिए खुले हैं। बेसब्री से इंतज़ार है आपका।”
मैंने जो सोचा था कि कोरोना पर लेक्चर दूँगा, वह सोच तो गई तेल लेने। पर मैंने जो तमीज़ दारी पर लेक्चर सुना, वो अगर पिताजी सुनते तो थोड़ी देर के लिए वो भी मुझे दी गई शिक्षा पर शक़ करते।
खैर मोटी बात ये है कि खाड्डुओं को कोरोना से डर नहीं है। वो दूसरों को हो सकता है परन्तु उन्हें नहीं। वे तो शादियों में पहाड़ी टोपी डाल के, उसपे फुर्कु लगा के, नाटी में नाचेंगे, और मातम में भी जायेंगे। वापसी में किसी जलाशय के किनारे बोतलें खोलेंगे और कागज़ के गिलास में लगभग नीट पैग बनाएँगे। फिर, सलाद, पोटी, सीरी, चिकन, एक की लिफ़ाफ़े में से खाएँगे। और हाँ, यहाँ वहाँ थूकने से भी परहेज़ नहीं करेंगे। तो भाई क्या सबक मिला?
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