प्रतीत होता है कि कुछ दिनों में, इस देश में, बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ भी आवाज़ उठाना शायद कठिन हो जाएगा।

मैं सदैव धर्म पर टिप्पणी करने से कतराता हूँ , परन्तु देश में बढ़ती असहिष्णुता से अछूता व अनभिज्ञ भी नहीं हूँ। मेरे विचार में, जिन लोगों ने हिन्दू धर्म के जीर्णोद्धार का ठेका ले लिया है, वे शायद सनातन धर्म का ‘स’ भी नहीं जानते।

प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी खूबी यही रही है कि कोई भी इच्छानुसार अपना पंथ चुनने को विमुक्त है। पंथ सौम्य से लेकर अघोर जैसे उग्र मार्ग युक्त रहे हैं। वेद के साथ-साथ तंत्र एवं यंत्र का भी साधना में उपयोग हुआ है। कोई द्वैत को मानता है तो कोई अद्वैत को। यह देश ऋषी-मुनियों सहित नाथों, सिद्धों, व अनेकों नाम चीन औघड़ों का देश रहा है।

आज जो देश में देखने को मिल रहा है वह हिन्दू धर्म का वहाबी-करण है। अगर हमें इस वहाबी-करण से बचना है तो समय रहते ये आवाज़ उठानी अनिवार्य है। लेखक की लेखनी किसी भी समाज की न सिर्फ प्रतिबिम्ब होती है, अपितु वह एक समाज को बदलने में भी सशक्त होती है। अगर लेखक व साहित्यकार विरोध पर उतर आया है तो कहीं न कहीं गड़बड़ अवश्य है।

यह समय है जान लेने का कि पानी अभी सर के ऊपर तो नहीं चढ़ा है परन्तु कंठ तक अवश्य आ चुका है। अगर हम अभी भी चुप रहे तो शायद आवाज़ उठाने के काबिल भी न रहेंगे। रहेंगे तो केवल बुलबुले।