— २००१
मुट्ठियाँ भींचकर
थोड़ी सर्दी छुपा लूँ
गर्मी के लिए।
हाथों से सहलाकर
थोड़ी हिम चुरा लूँ
नर्मी के लिए।
इस कोहरे के पार
एक अम्बर है
तारों को सम्भाल।
इस हृदय के पार
तुम्हारा साथ है
विषाद से विशाल।
हिम भी तुम हो, ये सर्दी भी।
ये गर्मी भी, ये नर्मी भी तुम हो।
ये अम्बर भी तुम हो, ये तारे भी।
ये हृदय भी, मेरा साथ भी तुम हो।
मैं बनकर कोहरा, तेरे हाथों को थाम
उड़ा जाता हूँ, लेते तुम्हारा नाम…
मेरी मुट्ठियों को खोल दो
मेरे हाथों को सहला दो
थोड़ी गर्मी के लिए, थोड़ी नर्मी के लिए॥
Related posts
Leave a Reply Cancel reply
Hot Topics
Categories
- Art (4)
- Cinema (3)
- Culture (3)
- Food (2)
- General Thoughts (3)
- Health (2)
- Life (5)
- Lifestyle (7)
- Media (2)
- My Writings Elsewhere (1)
- News (2)
- People (2)
- Photography (1)
- Places (1)
- Poems (24)
- Politics (4)
- Religion (3)
- Review (1)
- Society (3)
- Startups (1)
- Stories (3)
- Tech (1)
- Travel (2)
- Uncategorized (1)
- Who Cares! (5)
- Women (2)
- अभौतिकता (2)
- आमोद (5)
- कविता (27)
- जीवन (8)
- धर्म – कर्म (6)
- पत्र (4)
- पर्यावरण (1)
- राजनीति (4)
- लोक गीत (4)
- विवाह (1)
- व्यंग्य (4)
- सम्बन्ध (3)
- संस्कृति (6)
- सामान्य विचार (11)
- स्त्री (2)
- स्वप्न (1)
Stay connected