— ७ – ११ -२००१

प्राक्कथन की याचिका थी
शब्दों का प्रयास।
कब अध्याय बन गए
सम्बन्धों का उपन्यास।

निम्न छाया का प्यासा था
एक पत्र भी अधिक था।
शीत आहों का कुहासा लिए
पूरा वृक्ष ही मिल गया।

शुष्क ओष्ठ पर मेरे
मखमली पत्रों का जाल गिरा।
शाखाओं ने जब थाम लिया
प्यासा न रहा कोई शिरा।

वह छाया तुम प्रिय
शीत आहें तुम्हारा श्वास।
तुम ही हो वह वृक्ष अर्चना
रहता जो सदैव पास।

आज भी तुम्हारे ओष्ठ का स्वाद लिए
जिह्‌वा मेरी सिहर जाती।
तुम्हारे श्वास का कॉंधों पर आभास
तन को मेरे मदमाती॥