— १ दिसम्बर २००१, ०१२० घंटे
तेरे बचपन की नादानियॉं
तेरे हाथों से कब छूटे?
बच्ची ही तो हो।
यह समझ लिया, तो कैसे रूठें?
पकड़ लूँ बँह या बाल अंगुली
खेलूँ तुमसे या प्यार करूँ?
बच्ची ही तो हो।
यह समझ लिया, तो कैसे हरूँ?
लाड़ी कहूँ तुमको या लाडली
ओंठ चूम लूँ तुम्हारे या मस्तक?
हम तो डरे, वसन पर तुम्हारे यौवन
देगा कब दस्तक?
बच्ची ही तो हो, या फिर नाटक?
बुढ़ापा छा रहा हम पे, हम डरे।
केश श्वेत हुए हमारे,
तुम्हारी हठ के आगे, क्या करें?
करती हो कोध या अठखेलियॉं?
यही तो हम न समझा करें।
बच्ची ही तो हो।
यह समझ लिया, तो कैसे डरें?
तेरे बचपन की नादानियॉं
तेरे हाथों से कब छूटे?
बच्ची ही तो न हो।
तभी तो दिल, कितनी बार टूटे?
कई बार टूटे।
Related posts
Leave a Reply Cancel reply
Hot Topics
Categories
- Art (4)
- Cinema (3)
- Culture (3)
- Food (2)
- General Thoughts (3)
- Health (2)
- Life (5)
- Lifestyle (7)
- Media (2)
- My Writings Elsewhere (1)
- News (2)
- People (2)
- Photography (1)
- Places (1)
- Poems (24)
- Politics (4)
- Religion (3)
- Review (1)
- Society (3)
- Startups (1)
- Stories (3)
- Tech (1)
- Travel (2)
- Uncategorized (1)
- Who Cares! (5)
- Women (2)
- अभौतिकता (2)
- आमोद (5)
- कविता (27)
- जीवन (8)
- धर्म – कर्म (6)
- पत्र (4)
- पर्यावरण (1)
- राजनीति (4)
- लोक गीत (4)
- विवाह (1)
- व्यंग्य (4)
- सम्बन्ध (3)
- संस्कृति (6)
- सामान्य विचार (11)
- स्त्री (2)
- स्वप्न (1)
Stay connected