— १ दिसम्बर २००१

मैं अकेलेपन की चादर ओढ़
सर्दी में रहा ठिठुर।
तू स्तनों में ताप लिए
दूर खड़ी ललचाए निष्ठुर।

मैं रद में हिम का ओज लिए
गा रहा विरह रागिनी।
तरसाए तेरी तपती सॉंसों पर
तॉंडव करती स्तनाग्नि।

आ अपनी बाहें फैलाकर
सत्कार कर, अंगीकार कर।
आह रति की पीड़ा बन
मुझे स्तनों पर अपने पिघलाकर।