एक साँझ में हमारा यौवन नहीं बीता था
कोई त्रिमूर्ति था तो कोई अद्वैत।
रवि के चढ़ने से श्वेत पंकज खिलते थे
तो देव नायक भी रमते थे।
सिन्दूरी क्षितिज को देखे दशक बीत गए
बस यूँही अब कविता नहीं निकलती
आज एक टीस उठी है हृदय में
वो मित्र कहाँ छूट गए।
जिनकी सौगंध खाने पर हमारी सौगंध टूटी थी
वो सर पीछे छूट गए।
फिर भी न जाने क्यूँ
हम आज द्वैत रह गए।
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