— ९ नवम्बर, २००१
कौन कहता है
स्वप्न आते हैं?
अगर इसे घर कहूँ
तो घर के एक कोने में
अलमारी सदैव बंद रहती।
दिन उसके छिद्रों में
प्रति संध्या विश्राम करता।
एक दिवस उत्सुक्ता ने उसे खोला
तो वह गर्द के गुबार में
दब गई।
उठ कर देखा तो
स्वप्नों के
फटे पुराने
रंगीन
चीथड़े थे।
कुछ पर पैबंद
कुछ छिद्रित
कुछ नए भी थे।
स्मृति, कुछ वर्ष पूर्व
रचित
”चलते-जलते स्वप्नच्च्
शीर्षक कविता की तरफ
लपक पड़ी।
उस दिन अहसास हुआ
स्वप्न चलते नहीं
दर्शक में जलाने का
सामर्थ्य भी नहीं।
कौन कहता है
स्वपन आते है?
स्वप्न जाते हैं।
अतीत में चीथडे़
बनकर।
मैंने स्वप्नों को
उठाकर
वापिस अलमारी में धकेला।
संध्या हो चली थी।
दिन आया
और स्वपनों पर लेट गया
सो गया।
मैंने किवाड़ बंद कर दिया।
एक स्वप्न जो किवाड़ के
दो पाटों में फंसकर
रौशनी देख रहा था,
आज वह भी टूट गया।
उड़ता
चला गया।
कौन कहता है
स्वप्न आते हैं?
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