पग निष्कासित कर देहलीज़ से
हिमल तुझे पुकार रहे।
क्यों सिसकता चौ भीति भीतर,
उन्मुक्त गगन में फुँफकार रे।

चिंतन उत्सर्ग कर व्यर्थ का
हो कंठित खग-भाखी में।
क्यों आत्मदाह इतिहास पृष्ठ पर
हो जीतक चिरस्थायी साखी में।

इन्द्रचाप सतरंगी है तू
सेतू धरा-आकाश पे।
ध्वजित हो निशि पर
रंजक तो समस्त प्रकाश में।